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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग : 21 
शुक्राचार्य के जीवन में अचानक एक मोड़ आ गया । अभी तक उनका जीवन सागर की तरह स्थिर, शांत और अविचल था । जयंती की मृत्यु ने इसमें भूचाल ला दिया । शुक्राचार्य को इसकी कल्पना भी नहीं थी । काल की गति बहुत टेढ़ी होती है । कब क्या हो जाए किसी को कुछ पता नहीं है । यदि पता चल जाये तो क्या वह उसे होने देगा ? पर मनुष्य के हाथ में काल की गति रोकने का कोई यन्त्र है क्या ? नियति को जो मंजूर होगा वह होकर रहेगा । शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या पर अटूट विश्वास था पर वह विद्या भी जयंती को वापस नहीं ला पाई । यह पृथक विषय है कि इस विद्या ने शुक्राचार्य के शिष्यों को पुनर्जीवित कर दिया था । शुक्राचार्य का विलुप्त आत्मविश्वास लौट आया था । अब उन्हें मृत संजीवनी विद्या की ताकत और कमजोरी दोनों पता चल चुकी थी । 

महाराज वृषपर्वा को जब यह समाचार सुनाई दिया कि देवराज इन्द्र ने घृणित कृत्य कर दैत्य गुरू शुक्राचार्य के आश्रम पर अग्निदेव से आक्रमण करवाया था जिससे शुक्राचार्य का आश्रम जलकर खाक हो गया था और उनके 12 शिष्य उसमें जलकर स्वाहा हो चुके थे । इससे महाराज वृषपर्वा अमर्ष में भर उठे । वे अपने अमात्य और सेनापति को साथ लेकर शुक्राचार्य के आश्रम में आ पहुंचे । शुक्राचार्य ने महाराज की भाव भंगिमा देखी तो उन्हें बड़ा दुख हुआ । वे बोले "महाराज, जयंती के साथ ही यह आश्रम भी नष्ट हो गया है । मैं स्वयं को अनाथ महसूस कर रहा हूं" । शुक्राचार्य की आंखों में आंसू थे 
"मैं आपकी स्थिति समझ सकता हूं गुरूदेव । गुरू पत्नी के देवलोक गमन पर पूरा राज्य शोकमग्न है गुरूदेव । पूरे राज्य को ऐसा लग रहा है कि जैसे उनकी माता उनसे छीन ली गई है गुरूदेव । इस दुख की घड़ी में हम सब आपके साथ हैं । पर इस दुष्ट इन्द्र को क्या सूझी जो उन्होंने आपके आश्रम पर आक्रमण कर उसे जला दिया ? इन्द्र का यह आक्रमण आपके आश्रम पर नहीं , दैत्य साम्राज्य पर है गुरूदेव । इन्द्र को उसकी धृष्टता का उचित दण्ड दिया जाएगा । आपकी आज्ञा हो तो स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया जाये ? संपूर्ण प्रजा में रोष व्याप्त है और संपूर्ण सेना इस घटना से आक्रोशित है और इसका बदला लेने के लिए तत्पर है । आक्रमण कब और कैसे करना है, यह आपको निर्धारित करना है गुरूदेव । हम आपके पास इसी विषय पर विचार विमर्श करने के लिए उपस्थित हुए हैं" । कहते हुए महाराज वृषपर्वा वहां पर रखे एक आसन पर बैठ गये । 

शुक्राचार्य एक घड़ी तक खामोश रहे और महाराज की बातों पर विचार करते रहे । पूरी तरह मनन करने के पश्चात वे बोले "नहीं राजन ! अभी आक्रमण करने का समय नहीं आया है । यद्यपि देवराज इंद्र का यह कृत्य किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है परन्तु उनके इस कृत्य के कारण पूरा स्वर्ग लोक क्यों संतप्त हो ? देवराज इंद्र की मनोदशा समझ में आती है । एक पिता अपनी पुत्री को अपनी जान से अधिक प्यार करता है । देवराज इंद्र की पुत्री जयंती ने उनकी इच्छा के विरुद्ध मुझसे प्रेम किया था और अपने माता पिता के मत के विपरीत मुझसे विवाह किया था । ऐसी परिस्थिति में प्रत्येक पिता यह सोचता है कि उसकी पुत्री को उसके जामाता ने बहलाया फुसलाया होगा और विवाह करने के लिए बाध्य किया होगा । यदि वह पुत्री असमय में ही काल का शिकार हो जाये तो उसका पिता यही समझेगा कि उसकी पुत्री की मृत्यु का उत्तरदायी उसका जामाता है । उसे किसी भी तर्क और मत से समझाया नहीं जा सकता है । देवराज इन्द्र ने इसी धारणा के वशीभूत होकर वह कृत्य किया था । मुझे इसमें दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण नजर नहीं आता है   मेरी सम्मति में इन्द्र का वह कार्य केवल अमर्ष का परिणाम था अन्य कुछ नहीं । केवल उत्तेजना में आकर ही वे ऐसा कर बैठे जिस पर उन्हें अब पश्चाताप हो रहा होगा । अतः हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे देवता और दैत्य पुनः अन्तहीन युद्ध के दलदल में धंस जायें । अभी हमें देवराज के आगामी कदमों पर ध्यान रखना चाहिए । यदि वे ऐसा और कुछ करते हैं तो फिर हम राजसभा में इस पर विचार-विमर्श कर सकते हैं" । 

शुक्राचार्य की बातों से महाराज वृषपर्वा का जोश कुछ कम हुआ लेकिन वे अपने मत पर दृढ़ रहते हुए बोले "आपकी बात कुछ सीमा तक सही है गुरुदेव लेकिन यह भी सही है कि अग्निदेव ने हमारे 12 होनहार युवाओं को जिन्दा जला दिया था । यह दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण नहीं है तो और क्या है गुरूदेव ? ये आपकी मृत संजीवनी विद्या का चमत्कार है जो वे 12 शिष्य पुनर्जीवित हो गये जिससे हम आज उनकी माताओं को मुंह दिखलाने योग्य हो गये हैं अन्यथा हम जीते जी उनकी नजरों का सामना करने की स्थिति में नहीं होते । यदि देवराज को उसके उस घृणित कृत्य का प्रत्युत्तर नहीं दिया गया तो देवता समझेंगे कि दैत्य उनसे भयभीत हो गये हैं । इस कारण वे दैत्य साम्राज्य में आए दिन ऐसे ही कृत्य करते रहेंगे । अतः अब आप ही हमारा मार्ग प्रशस्त करें कि हम यूं ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे अथवा आगे बढ़कर युद्ध का नगाड़ा बजा दें" ? महाराज वृषपर्वा के मुंह से शब्द नहीं ज्वाला निकल रही थी 

अमात्य सुशर्मा जो अब तक चुप थे, अब बोले "महाराज की बातें सौ प्रतिशत सत्य हैं आचार्य । शत्रु के आक्रमण का यदि समय पर प्रतिकार नहीं किया जाये तो इससे शत्रु पक्ष के हौंसले बुलंद होते हैं और अपनी सेना के कमजोर । यदि केवल आश्रम जलता और उसमें शिष्य नहीं जलते तब तो इस आक्रमण की उपेक्षा की जा सकती थी किन्तु इस स्थिति में युद्ध करना ही समयानुकूल है । मेरी बुद्धि में तो यही बात आती है इसलिए एक बार और भलीभांति विचार कर निर्णय किया जाना चाहिए" अमात्य सुशर्मा के चेहरे पर आक्रोश था । 
अमात्य को उत्तेजित देखकर सेनापति महासुर खड्ग लहराकर बोले "महाराज उचित कह रहे हैं आचार्य ! पूरी दैत्य सेना उबल रही है । चारों ओर "प्रतिकार प्रतिकार" के नारे लग रहे हैं । सेना का मनोबल अभी बहुत ऊंचा है इसलिए हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए । जब तक देवताओं को आक्रमण का पता चलेगा तब तक तो स्वर्ग लोक हमारा हो जाएगा । स्वर्ग लोक के भोगों को भोगने के लिए कब से इच्छाओं को कारागार में कैद कर रखा है सब लोगों ने ? सुन्दर सुन्दर अप्सराऐं सब दैत्यों के स्वप्न में आती हैं । नाना प्रकार की चेष्टाओं और भाव भंगिमाओं के द्वारा उन्हें लुभाती हैं । दैत्य जब उत्तेजित हो जाते हैं तब वे उन्हें दग्ध करके भाग जाती हैं । अब उन्हें भी उनके कृत्यों का दण्ड मिलना चाहिए, आचार्य" । सेनापति महासुर की पीड़ा तनिक अधिक थी । ऐसा लग रहा था कि वे मेनका या उर्वशी के तीखे नयनों के वार से बुरी तरह जख्मी हुए पड़े थे । 

सेनापति महासुर के वचन सुनकर शुक्राचार्य बोले "राजन ! युद्ध कोई बालकों की क्रीड़ास्थली नहीं है । युद्ध में विनाश होता है विनाश । दोनों पक्षों के योद्धाओं की मृत्यु होती है । उनकी पत्नियां विधवा हो जाती हैं और बच्चे अनाथ । सम्पत्ति की हानि होती है वह पृथक है । सेना के अभियान से फसलें नष्ट हो जाती हैं , कुओं में विष डालकर उन्हें दूषित कर दिया जाता हे । पीने के पानी का अभाव हो जाता है । नर मुण्डों का पर्वत बन जाता है । रक्त की नदियां बहने लगती हैं और जंगली पशु क्षत विक्षत शरीरों को नोंच नोंच कर खा रहे होते हैं । युद्ध मानवता के मुंह पर वैसा ही कलंक है जैसे चांद के मुंह पर धब्बे हैं । अतः मैं तो युद्ध के पक्ष मे नहीं हूं" । शुक्राचार्य ने हथियार डालते हुए कहा । 

शुक्राचार्य की बातों ने महाराज वृषपर्वा को सोचने पर विवश कर दिया । वे बोले "आपका कथन मानवता के हित के अनुरूप है आचार्य । मैं आपकी सम्मति के बिना युद्ध तो क्या कोई छोटा सा भी कार्य नहीं कर सकता हूं । यदि आप कहते हैं तो हम देवराज के उस घृणित कृत्य को खून के घूंट की तरह पी जाते हैं । पर हमें ऐसा कुछ अवश्य करना चाहिए जिससे कायर देवता भयभीत हो जायें और थर थर कांपने लग जायें" । 
"आपका मत बहुत रुचिकर है महाराज ! हम आक्रमण नहीं करेंगे किन्तु देवताओं को चैन से बैठने भी नहीं देंगे । हम एक दूत देवराज इंद्र के पास भेजेंगे जो इन्द्र सभा में देवराज के घृणित कृत्य के बारे में समस्त देवलोक को बताए और हमारी प्रजा के आक्रोश तथा सेना के मत को वहां भलीभांति रखे तथा मृत संजीवनी विद्या का प्रभाव समझाये  जिससे देवता भयभीत हो जायें । ऐसे किसी दूत को स्वर्ग लोक में भेजा जाना चाहिए जो वाक् पटु हो और वीर भी हो" शुक्राचार्य ने कहा 
"यह सही रहेगा । इससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी । तो, आप ही बताइए कि किसे बनायें दूत" ? महाराज वृषपर्वा बोल पड़े । 

सभी लोग इस पर मनन करते रहे । अंत में अमात्य को ही दूत बनाने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया । अमात्य सुशर्मा स्वर्ग लोक की यात्रा की तैयारियां करने लगे । महाराज वृषपर्वा ने देवराज इंद्र को संदेश प्रेषित कर दिया । 

क्रमश : 
15.5.23 

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4 Comments

Natasha

16-May-2023 10:41 PM

Nice

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Hari Shanker Goyal "Hari"

17-May-2023 05:12 AM

🙏🙏

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Abhinav ji

15-May-2023 08:54 AM

Nice

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Hari Shanker Goyal "Hari"

16-May-2023 03:40 AM

🙏🙏

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